भूख और भीख में बेहद करीबी रिश्ता होता है। भूख ही इंसान को बेबस होने पर भीख मांगने पर मजबूर करती है हमारे देश में भीख मांगने वालों को बेहद तिस्कृत नजरों से देखा जाता है और जो भीख दी भी जाती है वह बेहद उपेक्षापूर्ण ढंग से। अमूमन कस्बे या छोटे शहरों में रहने वाले की भीख महज अपनी भूख मिटाने के लिये होती है। जबकि इससे उलट महानगरों में भीख एक रोजगार का स्वरुप बन जाती है क्योंकि वहां भी अपनी दुकानदारी चलानी पडती है। भीख की दुकान चलाने के गिरोह होते हैं।ऐसे गिरोह में छोटे और किशोर उम्र के बच्चे होते हैं जो इतने मासमू होते हैं कि उन्हें गरीबी में भूखे रहने का हुनर नहीं आता। उन्हीं की गरीबी का फायदा भिखारियों के गिरोह चलाने वाले सरगना उठाते हैं और अपना कारोबार चलाते हैं जबकि उन मासूमों को बमुश्किल दो वक्त खाना ही नसीब होता है और पर्याप्त भीख ना लाने पर यंत्रणा भी। ऐसे गिरोह के संरक्षक उनकी योग्यता का आकलन कर भविष्य में उन्हें अपराध के दलदल में धीरे से ढकेल दिया जाता है। हमारे देश में बालश्रम प्रतिषेध कानून लागू होने के बावजूद इन नियमों की धज्जियां उड़ाते इन मजबूर बच्चों को हम कस्बों से लेकर महानगरों तक देख सकते हैं। भीख मांगने वाले इन बदनसीबो को लेकर हमारे हिन्दी सिने
जगत में चंद फिल्में भी बनी है जिनमें या तो बच्चों को भीख मांगते या कुछ चीजें बेचने की गुजारिश करते देखा जा सकता है। हैरतअंगेज बात यह है कि यह महानगरीय दृश्य अब अपने शहरों में भी देखा जाने लगा है।
इस भीख सेअलग एक और भीख भी होती है जिसे हम धर्म की श्रेणी में रख सकते है। अक्सर इसका उपयोग या कहें दुरूपयोग धर्मभीरू लोगों के भयादोहन के लिये किया जाता है। मिसाल के तौर पर श्री शनिदेव का नाम इसमें शीर्ष पर रखा जा सकता है। जिनके नाम पर हफ्ते के एक दिन घर-घर जाकर शनि देव की मूरत दिखाकर भीख प्राप्त की जाती है। जिसमें चिल्हर की राशि बहुतायत में होती है उसे अक्सर बट्टे में चलाया जाता है। इस तरह धर्म के साथ एक धंधा भी जुड़ जाता है। ऐसा नहीं कि भीख सिर्फ हमारे देश में ही मांगी जाती है। विकसित देशों में भी भीख मांगी जाती है फर्क यह है कि वहां श्रम और कला के माध्यम से दर्शकों और श्रोताओं से स्वेच्छिक सहयोग के रूप में प्राप्त किया जाता है। इस तरह के प्रयोग फिलहाल हमारे देश में प्रचलन में नहीं है।यदि हो भी तो उसकी सफलता संदिग्ध है क्योंकि मुफ्त मे मिलने वाली सुविधाएं और सेवाएं हमारे लिए महत्वहीन होती हैं।इस तरह सैकड़ो जरिये हैं भीख प्राप्त करने के लेकिन सबसे खतरनाक भीख राजनीति के क्षेत्र में मांगी जाती है। यहां भी भूख के लिए ही भीख मांगी जाती है लेकिन वह भूख पेट के लिए कतई नही बल्कि सत्ता और शोहरत के लिये होती है यह एक अंतहीन भूख है जो जितनी मिटती जाती है उससे दोगुनी बढ़ती जाती है। जिसने एक बार इसका स्वाद चख डाला हो उसके सामने अन्य सभी भूख गौण और गैर जरूरी हो जाते हैं। यह भूख व्यक्ति को इस कदर अंधा कर देती है कि वह मानवीय संवेदनाओं से शून्य हो जाता है।
यह भूख इन दिनों हमारे देश में चरमोत्कर्ष पर है जिसके लिए राजनैतिक ताकतें साम-दाम-दंड-भेद जैसा कोई भी रास्ता अख्तियार करने में झिझक महसूस नहीं करतीं।

आशा त्रिपाठी
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